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अमृता ूीतम क

कुछ क वताएं

एक घटना

तेर याद
बहत
ु दन बीते
जलावतन ह

जीतीं ह या मर गयीं-
कुछ पता नहं

िसफ' एक बार एक घटना हई


ु थी
*याल+ क
रात बड़ गहर थी
और इतनी ःत0ध थी
क प2ा भी हले
तो बरस+ के कान च6क जाते..

फर तीन बार लगा


जैसे कोई छाती का 9ार खटखटाये
और दबे पांव छत पर चढ़ता कोई
और नाखून+ से पछली दवार को कुरे दता…..

तीन बार उठ कर
मने सांकल टटोली
अंधेरे को जैसे एक गभ' पीड़ा थी
वह कभी कुछ कहता
और कभी चुप होता
?य+ अपनी आवाज को दांत+ म दबाता
फर जीती जागती एक चीज
और जीती जागती आवाज
“म काले कोस+ से आयी हंू
ूहAरय+ क
आंख से इस बदन को चुराती
धीमे से आती
पता है मुझे क तेरा दल आबाद है
पर कहं वीरान सूनी कोई जगह मेरे िलये?”

“सूनापन तो बहत
ु है ,
पर तूं जलावतन है , कोई जगह नहं,
म ठCक कहती हंू कोई जगह नहं तेरे िलये,
यह मेरे मःतक,
मेरे आका का हDम
ु है !”

और फर जैसे सारा अंधेरा कांप जाता है


वह पीछे को लौट
पर जाने से पहले कुछ पास आयी

और मेरे वजूद को एक बार छआ
धीरे से

ऐसे, जैसे कोई वतन क
िमHट को छता है …..

***********

एक मुलाकात

म चुप शाJत और अडोल खड़ थी


िसफ' पास बहते समुJि म तूफान था……

फर समुJि को खुदा जाने


Dया *याल आया
उसने तूफान क
एक पोटली सी बांधी
मेरे हाथ+ म थमाई
और हं स कर कुछ दरू हो गया

है रान थी….
पर उसका चमMकार ले िलया
पता था क इस ूकार क
घटना
कभी सदय+ म होती है …..

लाख+ *याल आये


माथे म Nझलिमलाये

पर खड़ रह गयी क उसको उठा कर


अब अपने शहर म कैसे जाऊंगी?

मेरे शहर क
हर गली संकर
मेरे शहर क
हर छत नीची
मेरे शहर क
हर दवार चुगली

सोचा क अगर तू कहं िमले


तो समुJि क
तरह
इसे छाती पर रख कर
हम दो कनार+ क
तरह हं स सकते थे

और नीची छत+
और संकर गिलय+
के शहर म बस सकते थे….

पर सार दोपहर तुझे ढंू ढते बीती


और अपनी आग का मने
आप ह घूंट पया

म अकेला कनारा
कनारे को िगरा दया
और जब दन ढलने को था
समुJि का तूफान
समुJि को लौटा दया….

अब रात िघरने लगी तो तूं िमला है


तूं भी उदास, चुप, शाJत और अडोल
म भी उदास, चुप, शाJत और अडोल
िसफ'- दरू बहते समुJि म तूफान है …..

*************

याद

आज सूरज ने कुछ घबरा कर


रोशनी क
एक Nखड़क
खोली
बादल क
एक Nखड़क
बंद क

और अंधेरे क
सीढयां उतर गया….

आसमान क
भव+ पर
जाने Dय+ पसीना आ गया
िसतार+ के बटन खोल कर
उसने चांद का कुता' उतार दया….

म दल के एक कोने म बैठC हंू


तुQहार याद इस तरह आयी
जैसे गीली लकड़ म से
गहरा और काला धूआ
ं उठता है ….

साथ हजार+ *याल आये


जैसे कोई सूखी लकड़
सुख' आग क
आह भरे ,
दोन+ लकड़यां अभी बुझाई ह

वष' कोयले क
तरह बखरे हए

कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वS का हाथ जब समेटने लगा
पोर+ पर छाले पड़ गये….
ू गयी
तेरे इँक के हाथ से छट
ू गयी
और NजJदगी क
हNJडया टट
इितहास का मेहमान
मेरे चौके से भूखा उठ गया….

***********

हादसा

बरस+ क
आर हं स रह थी
घटनाओं के दांत नुक
ले थे
ू गया
अकःमात एक पाया टट
आसमान क
चौक
पर से
शीशे का सूरज फसल गया

आंख+ म ककड़ िछतरा गये


और नजर ज*मी हो गयी
कुछ दखायी नहं दे ता
दिनया
ु शायद अब भी बसती है

*************

आMमिमलन

मेर सेज हाNजर है


पर जूते और कमीज क
तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहं
बस अपने अपने दे श का Aरवाज है ……
************

शहर

मेरा शहर एक लQबी बहस क


तरह है
सड़क - बेतुक
दलील+ सी…
और गिलयां इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर

हर मकान एक मुHठC सा िभंचा हआ



दवार -कचकचाती सी
और नािलयां, ?य+ मूंह से झाग बहती है

यह बहस जाने सूरज से शुV हई


ु थी
जो उसे दे ख कर यह और गरमाती
और हर 9ार के मूंह से
फर साईकल+ और ःकूटर+ के पहये
गािलय+ क
तरह िनकलते
और घंटयां हान' एक दसरे
ू पर झपटते

जो भी बWचा इस शहर म जनमता


पूछता क कस बात पर यह बहस हो रह?
फर उसका ूX ह एक बहस बनता
बहस से िनकलता, बहस म िमलता…

शंख घंट+ के सांस सूखते


रात आती, फर टपकती और चली जाती

पर नींद म भी बहस खतम न होती


मेरा शहर एक लQबी बहस क
तरह है ….

*************
वाAरस शाह नूं

आ?ज आखां वाAरस शाह नूं


कMथे कबरां वच+ बोल ते आ?ज कताबे ईँक दा
कोई अगला वका' फोल

इक रोई सी धी पंजाब द तूं िलख िलख मारे वैण

आ?ज लखां िधया र+दयां तैनूं वाAरस शाह नूं कैण

उठ दद' मंदा दे या दद' या उठ तDक अपना पंजाब

आ?ज वेले लाशा विछयां ते लहू द भर िचनाव

कसे ने पंजा पाNणयां वच द2ी जहर रला

ते उणा पाNणयां धरत नूं द2ा पानी ला

इस जरखेज जमीन दे लू लू फुटया जहर

िगHठ िगHठ चड़यां लािलयां ते फुट फुट चड़या कहर

उहो विलसी वा फर वण वण वगी जा

उहने हर इक बांस द वंजली द2ी नाग बना

नागां कZले लोक मूं, बस फर डां[ग ह डां[ग,

पZलो पZली पंजाब दे , नीले पै गये अंग,


गलेय+ टHटे ु
गीत फर, ऽखल+ टHट तंद,


ऽंझण+ टNHटयां सहे िलयां, चरखरे घूकर बंद

सने सेज दे बेड़यां, लु]डन द2ीयां रोड़,

सने डािलयां पींग आ?ज, पपलां द2ी तोड़,


NजMथे वजद सी फूक ^यार द, ओ वंझली गयी गवाच,

रांझे दे सब वीर आ?ज भुल गये उसद जाWच

धरती ते लहू विसया, कॄां पइयां चोण,

ूीत दया शाहाजादयां अ?ज वWच मजारां रोन,

आ?ज स0बे कैद+* बन गये, हःन


ु इँक दे चोर

आ?ज कMथ+ ला0ब के लयाइये वाAरस शाह इक होर

वाAरस शाह से

आज वाAरस शाह से कहती हंू


अपनी कॄ म से बोलो

और इँक क
कताब का

कोई नया वक' खोलो

पंजाब क
एक बेट रोई थी

तूने एक लंबी दःतांन िलखी

आज लाख+ बेटयां रो रह ह,

वाAरस शाह तुम से कह रह ह

ए दद' मंद+ के दोःत

पंजाब क
हालत दे खो
चौपाल लाश+ से अटा पड़ा ह,

िचनाव लहू से भर पड़ है

कसी ने पांच+ दAरयाओं म


एक जहर िमला दया है
और यह पानी

धरती को सींचने लगा है

इस जरखेज धरती से

जहर फूट िनकला है

दे खो, सुखa कहां तक आ पंहुं ची

और कहर कहां तक आ पहंु चा

फर जहरली हवा वन जंगल+ म चलने लगी


उसम हर बांस क
बांसुर

जैसे एक नाग बना द

नाग+ ने लोग+ के ह+ठ डस िलये

और डं क बढ़ते चले गये

और दे खते दे खते पंजाब के

सारे अंग काले और नीले पड़ गये

ू गया
हर गले से गीत टट

ू गया
हर चरखे का धागा छट
सहे िलयां एक दसरे
ू ू गयीं
से छट

चरख+ क
महफल वरान हो गयी

मZलाह+ ने सार कNँतयां

सेज के साथ ह बहा दं


पीपल+ ने सार पग
टहिनय+ के साथ तोड़ दं

जहां ^यार के नगमे गूंजते थे

वह बांसुर जाने कहां खो गयी

और रांझे के सब भाई

बांसुर बजाना भूल गये


धरती पर लहू बरसा

कबर टपकने लगीं

और ूीत क
शहजादयां

मजार+ म रोने लगीं

आज सब कैद+* बन गये

हुःन इँक के चोर

म कहां से ढंू ढ के लाऊं

एक वाAरस शाह और..

(*कैद+ हर का चाचा था जो उसे जहर दे डालता है )

*************

पहचान

कई हजार चा बयां मेरे पास थीं


और एक-एक चाबी एक-एक दरवाजे को खोल दे ती थी
दरवाजे के अंदर कसी क
बैठक भी होती थी
और मोटे पदd म िलपटा कसी का सोने का कमरा भी
और घरवाल+ के दख

जो उनके ह होते थे, पर कसी समय मेरे भी होते थे
मेर छाती क
पीड़ा क
तरह
पीड़ा, जो दन के समय जागूं तो, जाग पड़ती थी,
और रात के समय सपन+ म उतर जाती थी,
पर फर भी
पैर+ के आगे, रfा क
रे खा जैसी, एक लआमण रे खा होती थी
और Nजसक
बदौलत म जब चाहती थी
घरवाल+ के दख
ु घरवाल+ को दे कर
उस रे खा से लौट जाती थी
और आते समय लोग+ के आंसू लोग+ को स6प आती थी....
दे ख, Nजतनी कहािनयां और उनके पाऽ ह !
उतनी ह चा बयां मेरे पास थीं
और Nजनके पीछे
हजार+ ह घर, जो मेरे नहं, पर मेरे भी थे,
शायद वे कहं अब भी ह
पर आज एक चाबी का कौतुक
मने तेरे घर को खोला तो दे खा
वह लआमण रे खा मेरे पैर+ के आगे नहं, पीछे है
और सामने तेरे सोने के कमरे म, तू नहं, म हंू .....

***********

वह चांद से VठC हई
ु एक रात थी
जब तार+ के मःतक म आग सरकती
तो उJह छाती से दध
ू दे ती
वह तार+ को बदन से झटक दे ती

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